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कविता

और कुछ कर पाऊँ या नहीं

पंकज चतुर्वेदी


और कुछ कर पाऊँ या नहीं
मृत्यु के आकर्षण से बचा लूँ
जीवन के ज़रूरी अध्यवसाय

बचा लूँ पतित सुखों के व्यामोह से
अपनी निरपराध दुनिया की करुण साझेदारी

उपलब्धि के हाशिए से धकेले गए हम
अपने समूचे देश की परिक्रमा करते हैं
ढूँढ़ते हुए वे जगहें
जहाँ हम खपा सकें अपनी क्षमताओं को
बचा लें एक भटकी हुई पीढ़ी के जर्जर आत्मबल से
एक उगती हुई फ़सल की देह का रोमांच
अपने सिरजे सबके वैभव में
शरीक होने की ख़ुशी

चाहे काँटों के उस धूप-छाये जंगल से गुज़रना पड़े
दाँतों में किसकन हो धूल-भरी धरती की
आँखों में बुख़ार की जलन हो
नसों में टूटन हो रक्त की कमी से
भाषा में अपने वजूद को
हासिल न कर पाने की मक्कारी से बचा लें
अपने समुद्र के उत्कर्षकामी जल को
पीड़ित मनुष्यों की इस सृष्टि में
और कुछ कर पाऊँ या नहीं
आदर्शोन्मुख होने के अहंकार से बचा लूँ
अपने होने की ज़िम्मेदारी के एहसास


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